भारत को यूं ही विभिन्नताओं का देश नहीं कहा जाता। यहां का अध्यात्मिक व दार्शनिक ज्ञान, खानपान, पहनावा और कल्चर सब कुछ थोड़ी थोड़ी दूरी पर जाते ही बदल जाता है। इसी में एक विरासत है, पेंटिंग्स, जो देश के अलग-अलग हिस्सों की प्रमुख शैलियों को दर्शाती हैं।
उत्तर में मिथिला
मधुबनी पेंटिंग को मिथिला पेंटिंग भी कहा जाता है क्योंकि कला का यह रूप बिहार और नेपाल से आता है, जो एक समय में मिथिला के नाम से जाना जाता था। हालांकि इस रूप के जन्म का कोई प्रमाण नहीं है, लेकिन इसे रामायण के समय करीब सातवीं शताब्दी से देखा जा सकता है। इस पेंटिंग को नवविवाहित जोड़ों के कमरों की दीवारों पर मिट्टी और गोबर लगा कर किया जाता था। कला के इस रूप में अधिकतर कमल के फूल, मछलियां, पक्षी और सांप ही बनाये जाते है। इसके अलावा कृष्ण, राम, दुर्गा, लक्ष्मी और सरस्वती जैसे देवी-देवताओं को भी चित्रित किया जाता है। इस पेंटिंग में खाली जगह नहीं छोड़ी जाती है। चमकीले रंगों के उपयोग से प्रेरित, मधुबनी पेंटिंग में रंगों के लिए प्राकृतिक स्रोतों जैसे पौधों और चारकोल का उपयोग किया जाता है।
दक्षिण में तंजोर
तंजावुर या तंजोर एक प्रचीन कला का रूप है, जो तमिलनाडु के शहर तंजावुर में 16वीं और 18वीं शताब्दी के बीच पनपा था। इस पेंटिंग को लकड़ी के तख्त पर किया जाता है, जिसका मुख्य विषय देवता होते हैं। आमतौर पर देवता की आंखें बादाम के आकार की होती हैं और वह एक पर्दे की तरह के कपड़े से घिरा होता है। इस पेंटिंग की विशेषता सोने का पानी चढ़े होने के साथ, जेम-सेट तकनीक होती है। आज के समय में इस पेंटिंग में आर्टिफीशियल स्टोन्स का इस्तेमाल होता है।
पूर्व में पत्ताचित्र
सबसे पुराने कला के रूपों में से एक है, पत्ताचित्रा, जो 12वीं शताब्दी से जाना जाता है। ओडीशा से आई इस कला के रूप का मतलब कपड़े पर किया जाने वाला चित्र है। पत्ताचित्र में मुख्य रूप से भगवान जगन्नाथ की थीम का इस्तेमाल होता है, साथ ही राधा-कृष्णा, रामायण, महाभारत और मंदिर के दृश्यों को पेंट किया जाता है। आज भी ओडिशा के गांव रघुराजपुर में हर परिवार में से एक सदस्य इस क्षेत्र से जुड़ा हुआ है। पारंपरिक चित्रकारों की विशेषता है कि वह सब्ज़ियों और मिनरल से निकले रंगों का इस्तेमाल करते है।
पश्चिम में वरली
वरली कला महाराष्ट्र की प्रमुख जनजातियों में से एक ‘वर्लिस’ की देन है। कला के इस रूप को 1970 के दशक में खोजा गया था, लेकिन इसकी झलक दसवीं शताब्दी में भी देखी जा सकती है। केव पेंटिंग्स की तरह वरली को भी झोपड़ियों के अंदर की दीवारों पर एलीमेंट्री स्टाइल से किया जाता है। कला के इस रूप में आमतौर पर आदिवासियों के दैनिक जीवन और प्रकृति के विभिन्न रूपों जैसे सूर्य, चंद्रमा और बारिश के चित्र शामिल होने के साथ उनकी मातृ देवी ‘पालघाट’ को पेंट किया जाता है।
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