देवदास, परिणीता, श्रीकांत जैसे मशहूर उपन्यास लिखने वाले शरतचंद्र चट्टोपाध्याय भले ही बांग्ला में लिखते थे, लेकिन उनकी रचनाओं के अनुवाद ने उन्हें देश विदेश में मशहूर कर दिया। समाज के निचले तबके और महिलाओं को मज़बूती से पेश करते उनके उपन्यास समय से बहुत आगे के थे। उनके उपन्यास वर्तमान समय में भी प्रासंगिक लगते हैं।
कैसा था बचपन?
मशहूर उपन्यासकार शरतचंद्र का जन्म 15 सितंबर 1876 को हुगली जिले के एक छोटे से गांव देवानंदपुर में हुआ था। नौ भाई-बहनों की वजह से अभिभावक की कोई खास सख्ती नहीं थी। शरतचंद्र को उपन्यास लिखने का शौक शुरू से था। 18 साल की उम्र में ही उन्होंने “बासा” नाम का पहला उपन्यास लिखा, लेकिन खुद उन्हें यह पसंद नहीं आया, तो उन्होंने उसे फाड़ दिया। वह रवींद्रनाथ टैगोर और बंकिमचंद्र से बहुत प्रभावित थे। 12वीं की पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने कॉलेज में एडमिशन तो लिया, लेकिन पढ़ाई पूरी नहीं कर पाये।

समाज का सच दिखाते उपन्यास
शरतचंद्र के उपन्यास समाज के निचले तबके और महिलाओं की सच्चाई उजागर करते हैं। उनके उपन्यासों की एक खासियत यह भी है कि उनके उपन्यासों की नायिका एक मज़बूत महिला होती है। जिस ज़माने में महिलाओं को अबला और बेहद कमज़ोर समझा जाता था, उस समय उन्हें एक मज़बूत किरदार के रूप में शरतचंद्र ने पेश किया। उनके उपन्यासों पर कई धारावाहिक और फिल्में भी बन चुकी हैं। हिंदी के अलावा तेलुगु भाषा में भी उनके उपन्यास पर फिल्में बन चुकी हैं।
प्रेरक कहानी
एक बार शरत की कुछ किताबों के साथ उनके उपन्यास चरित्रहीन की पांडुलिपि भी जल गई और यह करीब 500 पन्नों की थी। यह बात सुनकर शरत निराश या हताश नहीं हुये, बल्कि उन्होंने इसे पूरे जोश के साथ दोबारा लिखने का मन बनाया। उनकी मेहनत का ही नतीजा था कि उपन्यास दोबारा लिखा गया।
इस तरह की कई छोटी-छोटी प्रेरक बातें हैं, जो शरत चंद्र चट्टोपाध्याय के जीवन से सीखी जा सकती है।
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